आचार्य श्रीराम शर्मा >> सुनसान के सहचर सुनसान के सहचरश्रीराम शर्मा आचार्य
|
0 |
सुनसान के सहचर
2
हिमालय में प्रवेश : सँकरी पगडण्डी
आज बहुत दूर तक विकट रास्ते से चलना पड़ा। नीचे गंगा बह रही थी, ऊपर पहाड़ खड़ा था। पहाड़ के निचले भाग में होकर चलने की सँकरी सी पगडण्डी थी। उसकी चौड़ाई मुश्किल से तीन फुट रही होगी। उसी पर होकर चलना था। पैर भी इधर-उधर हो जाय तो नीचे गरजती हुई गंगा के गर्भ में जल समाधि लेने में कुछ देर न थी। जरा बचकर चले, तो दूसरी ओर सैकड़ों फुट ऊँचा पर्वत सीधा तना खड़ा था। यह एक इंच भी अपनी जगह से हटने को तैयार न था। सँकरी सी पगडण्डी पर सँभाल-सँभाल कर एक-एक कदम रखना पड़ता था; क्योंकि जीवन और मृत्यु के बीच एक डेढ़ फुट का अन्तर था।
मृत्यु का डर कैसा होता है उसका अनुभव जीवन में पहली बार हुआ। एक पौराणिक कथा सुनी थी कि राजा जनक ने शुकदेव जी को अपने कर्मयोगी होने की स्थिति समझाने के लिए तेल का भरा कटोरा हाथ में देकर नगर के चारों ओर भ्रमण करते हुए वापिस आने को कहा और साथ ही कह दिया था कि यदि एक बूंद भी तेल फैला तो वहीं गरदन काट दी जायेगी। शुकदेव जी मृत्यु के डर से कटोरे से तेल न फैलने की सावधानी रखते हुए चले। सारा भ्रमण कर लिया पर उन्हें तेल के अतिरिक्त और कुछ न दिखा। जनक ने तब उनसे कहा, कि जिस प्रकार मृत्यु के भय ने तेल की बूंद भी न फैलने दी और सारा ध्यान कटोरे पर ही रखा, उसी प्रकार मैं भी मृत्यु भय को सदा ध्यान में रखता हूँ, जिससे किसी कर्तव्य कर्म में न तो प्रमाद होता और न मन व्यर्थ की बातों में भटक कर चंचल होता है।
इस कथा का स्पष्ट और व्यक्तिगत अनुभव आज उस सँकरे विकट रास्ते को पार करते हुए किया। हम लोग कई पथिक साथ थे। वैसे खूब हँसते-बोलते चलते थे; पर जहाँ वह सँकरी पगडण्डी आई कि सभी चुप हो गए। बातचीत के सभी विषय समाप्त थे, न किसी को घर की याद आ रही थी और न किसी अन्य विषय पर ध्यान था। चित्त पूर्ण एकाग्र था और केवल यही एक प्रश्न पूरे मनोयोग के साथ चल रहा था कि अगला पैर ठीक जगह पर पड़े। एक हाथ से हम लोग पहाड़ को पकड़ते चलते थे, यद्यपि उसमें पकड़ने जैसी कोई चीज नहीं थी, तो भी इस आशा से कि यदि शरीर की झोंक गंगा की तरफ झुकी तो संतुलन को ठीक रखने में पहाड़ को पकड़-पकड़ कर चलने का उपक्रम कुछ न कुछ सहायक होगा। इन डेढ़-दो मील की यह यात्रा बड़ी कठिनाई के साथ पूरी की। दिल हर घड़ी धड़कता रहा। जीवन को बचाने के लिए कितनी सावधानी की आवश्यकता है-यह पाठ क्रियात्मक रूप से आज ही पढ़ा।
यह विकट यात्रा पूरी हो गई, पर अब भी कई विचार उसके स्मरण के साथ-साथ उठ रहे हैं। सोचता हूँ यदि हम सदा मृत्यु को निकट ही देखते रहें, तो व्यर्थ की बातों पर मन दौड़ाने वाले मृग तृष्णाओं से बच सकते हैं। जीवन लक्ष्य की यात्रा भी हमारी आज की यात्रा के समान ही है, जिसमें हर कदम साध-साधकर रखा जाना जरूरी है। यदि एक भी कदम गलत या गफलत भरा उठ जाय, तो मानव जीवन के महान् लक्ष्य से पतित होकर हम एक अथाह गर्त में गिर सकते हैं। जीवन से हमें प्यार है, तो प्यार को चरितार्थ करने का एक ही तरीका है कि सही तरीके से अपने को चलाते हुए इस सँकरी पगडण्डी से पार ले चलें, जहाँ से शान्तिपूर्ण यात्रा पर चल पड़े। मनुष्य जीवन ऐसा ही उत्तरदायित्वपूर्ण है, जैसा उस गंगा तट की खड़ी पगडण्डी पर चलने वालों का। उसे ठीक तरह निवाह देने पर ही सन्तोष की साँस ले सके और यह आशा कर सके कि उस अभीष्ट तीर्थ के दर्शन कर सकेंगे। कर्तव्य पालन की पगडण्डी ऐसी सँकरी है; उसमें लापरवाही बरतने पर जीवन लक्ष्य के प्राप्त होने की आशा कौन कर सकता है? धर्म के पहाड़ की दीवार की तरह पकड़कर चलने पर हम अपना यह सन्तुलन बनाये रह सकते हैं, जिससे खतरे की ओर झुक पड़ने का भय कम हो जाय। आड़े वक्त में इस दीवार का सहारा ही हमारे लिए बहुत कुछ है। धर्म की आस्था भी लक्ष्य की मंजिल को ठीक तरह पार कराने में बहुत कुछ सहायक मानी जायेगी।
|
- हमारा अज्ञात वास और तप साधना का उद्देश्य
- हिमालय में प्रवेश : सँकरी पगडण्डी
- चाँदी के पहाड़
- पीली मक्खियाँ
- ठण्डे पहाड़ के गर्म सोते
- आलू का भालू
- रोते पहाड़
- लदी हुई बकरी
- प्रकृति के रुद्राभिषेक
- मील का पत्थर
- अपने और पराये
- स्वल्प से सन्तोष
- गर्जन-तर्जन करती भेरों घाटी
- सीधे और टेढ़े पेड़
- पत्तीदार साग
- बादलों तक जा पहुँचे
- जंगली सेव
- सँभल कर चलने वाले खच्चर
- गोमुख के दर्शन
- तपोवन का मुख्य दर्शन
- सुनसान की झोपड़ी
- सुनसान के सहचर
- विश्व-समाज की सदस्यता
- लक्ष्य पूर्ति की प्रतीक्षा
- हमारी जीवन साधना के अन्तरंग पक्ष-पहलू
- हमारे दृश्य-जीवन की अदृश्य अनुभूतिया